महंगाई का आंकड़ा
अर्थव्यवस्था की यह आम समझ है कि अगर बाजार में मांग गिरती चली जाए, तो कंपनियां उत्पादन घटाएंगी, उससे रोजगार के अवसर सिकुड़ेंगे और उन सबका नतीजा यह होगा कि मुद्रा का प्रसार घटेगा। खुदरा महंगाई बढऩे की दर अक्टूबर में 6.8 प्रतिशत रही। थोक भाव मूल्य सूचकांक 18 महीनों के सबसे निचले स्तर यानी 8.4 प्रतिशत पर आ गया। इन आंकड़ों को समझने के दो नजरिए हो सकते हैं- पहला तो यही कि आखिरकार भारतीय रिजर्व बैंक की ब्याज दर बढ़ाने की नीति कामयाब हो रही है। इससे महंगाई बढऩे की दर पर अब लगाम लगी है। नीति निर्माता इसे अपनी सफलता के रूप में जरूर पेश करेंगे। लेकिन आम उपभोक्ता के नजरिए से देखें, तो पहले काफी तेज रफ्तार से बढ़ चुकी महंगाई अब भी उस दर बढ़ रही है, जिसे खुद सरकार और रिजर्व बैंक की सहन सीमा से काफी ऊंची है। गुजरे महीनों में महंगाई की कैसी मार पड़ी है, यह तेल साबुन बनाने वाली हर बड़ी कंपनी (एफएमसीजी) के हाल में जारी हुए तमाम रिपोर्टों से जाहिर हुई है। अक्टूबर त्योहारों का महीना था। इसके बावजूद उस महीने एफएमसीजी कंपनियों की बिक्री और मुनाफे में गिरावट आई। इसका सीधा मतलब है कि देश की बड़ी आबादी ने अपने बेहद जरूरी उपभोग में कटौती की है- और कम से कम पिछले महीने तक इस रुझान से राहत के कोई संकेत नहीं थे।
अर्थव्यवस्था की यह आम समझ है कि अगर बाजार में मांग गिरती चली जाए, तो कंपनियां उत्पादन घटाएंगी, उससे रोजगार के अवसर सिकुड़ेंगे और उन सबका नतीजा यह होगा कि मुद्रा का प्रसार घटेगा। यह गौर करने की बात है कि अक्टूबर में मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि संभलने के जो आंकड़े सामने आए हैं, उनमें इस पहलू का कितना योगदान है? बहरहाल, वर्तमान सरकार के दौर में ऐसे सवालों पर चर्चा नहीं होती। इसलिए कि उसकी दृष्टि में आम इनसान के हित और अर्थव्यवस्था का विकास अलग-अलग बातें हैँ। इस नजरिए की साफ अभिव्यक्ति पिछले हफ्ते हुई, जब जी-20 शिखऱ सम्मेलन की मेजबानी के लिए शेरपा नियुक्त किए गए अमिताभ कांत ने खुलेआम कहा कि भारत को दस हजार अंबानियों और 20 हजार अडाणियों की जरूरत है। उद्यमियों की जरूरत हर समाज को रहती है। लेकिन अगर दिशा मोनोपॉली की हो, उसमें ना तो उद्यमी पैदा होते हैं, और ना आम जन का हित सधता है। भारत में आज हम यही होते देख रहे हैँ।